चंडीगढ़,(जंगशेर राणा) । देश के प्रदूषण संकट को लेकर एक लंबे समय से चल रही बहस के बीच, सरकार और कुछ मीडिया संगठनों का ध्यान किसानों की पराली जलाने पर केंद्रित हो गया है। यह वह पराली है, जिसे जलाने से निकलने वाले धुएं को देश में बढ़ते प्रदूषण का मुख्य कारण बताया जाता है। जबकि फैक्ट्री की चिमनियों से निकलता धुआं, सड़कों पर दिन-रात बढ़ती गाड़ियों की तादाद, और त्योहारों के मौसम में पटाखों से निकलने वाला धुआं अनदेखा कर दिया जाता है।
मीडिया की भूमिका पर किसानों का सवाल
किसानों का कहना है कि मीडिया ने उनकी परेशानियों और समस्याओं को नज़रअंदाज़ किया है। हाल ही में एक किसान ने मीडिया की चुप्पी पर तंज कसते हुए कहा:
“तेरी ख़बर तय स्याही सूखे इन बीके होय अख़बार की,
तेरी बात पै जीभ चढ़े इन चैनल के पत्रकारो की।”
यह पंक्तियाँ केवल पत्रकारिता पर सवाल नहीं उठातीं, बल्कि इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि किस तरह से मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, अब बड़े हितों के आगे अपनी भूमिका निभाने में असमर्थ हो रहा है। फैक्ट्री के धुएं और बढ़ते वाहनों के प्रदूषण को नजरअंदाज कर, किसानों पर प्रदूषण का ठीकरा फोड़ना इस बात का सबूत है कि किसानों की समस्याओं को सही तरीके से उजागर नहीं किया जा रहा है।
किसान और पराली: समस्या का दूसरा पहलू
हर साल अक्टूबर-नवंबर के महीने में पराली जलाने का मुद्दा सुर्ख़ियों में आता है। लेकिन मीडिया शायद ही कभी इस बात को सामने लाता है कि क्यों किसान पराली जलाने पर मजबूर हैं। छोटी जोत वाले किसान, जिनके पास अत्याधुनिक मशीनों तक पहुँच नहीं है, पराली को जलाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते। हालांकि पराली जलाना उनके लिए भी आसान विकल्प नहीं है, लेकिन सस्ता और त्वरित समाधान है। सरकार ने जो सब्सिडी वाली मशीनें उपलब्ध कराई हैं, वह या तो किसानों तक नहीं पहुँच रही हैं, या उनकी लागत इतनी अधिक है कि छोटे किसान इसे वहन नहीं कर सकते।
प्रदूषण और मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी
प्रदूषण की जटिल समस्या को केवल एक समूह पर दोषारोपण करना सच्चाई से भागने जैसा है। अगर सरकार और मीडिया को वास्तव में प्रदूषण की चिंता है, तो उन्हें सड़कों पर चलने वाले लाखों वाहनों, औद्योगिक प्रदूषण और पटाखों की भी जांच करनी होगी। जब सरकार और मीडिया मिलकर केवल किसानों पर उंगली उठाते हैं, तो यह न केवल किसानों के साथ अन्याय है, बल्कि यह देश के आम नागरिकों के साथ भी धोखा है, जिन्हें सच्चाई से दूर रखा जा रहा है।
किसानों की आवाज़ को क्यों दबाया जा रहा है?
आज का किसान सवाल पूछ रहा है कि उसकी आवाज़ क्यों नहीं सुनी जा रही है। क्यों हर समस्या का ठीकरा उसके सिर पर फोड़ा जा रहा है? यह मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह सच्चाई को सामने लाए, न कि केवल एक पक्ष की कहानी बताए। पत्रकारों का कर्तव्य है कि वह किसानों की असल समस्याओं को उजागर करें और सरकार से जवाबदेही माँगे।
निष्कर्ष
पराली जलाने को लेकर किसानों पर दोषारोपण करना एक आसान रास्ता है, लेकिन यह प्रदूषण के असली कारणों से ध्यान हटाने की कोशिश है। मीडिया और सरकार दोनों को यह समझने की ज़रूरत है कि किसानों को दोषी ठहराने से समस्या का समाधान नहीं होगा। किसानों की आवाज़ उठाना और उनकी समस्याओं को सही ढंग से सामने लाना एक ईमानदार पत्रकारिता की निशानी है, जो कि आज के समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।