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दाव पर प्रशांत किशोर का राजनैतिक कौशल ! कांग्रेस की पुरानी साख बहाल करना इतना आसान नहीं जितना दिख रहा है

चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) देश की सबसे पुरानी पार्टी की राजनैतिक की साख को पुन: बहाल कर पाएंगे ? क्योंकि चुनौतियां एक नहीं अनेक हैं l समाधान इतना आसान नहीं जितना दिख रहा है l प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) और कांग्रेस के बीच बातचीत अंतिम दौर में हैं। वह लगातार पार्टी नेताओं के साथ बैठक कर विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए अपनी कार्ययोजना पर चर्चा कर रहे हैं। यह लगभग तय माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर जल्द कांग्रेस का हाथ थाम लेंगे ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या वह पार्टी नेता के तौर पर अपनी कार्ययोजना को लागू कर पाएंगे।

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। पार्टी का काम करने का अपना तरीका है। हर राज्य में पार्टी के सामने अलग तरह की चुनौतियां हैं। संगठन कमजोर है और अंदरुनी कलह चरम पर है। ऐसे में प्रशांत किशोर के लिए कांग्रेस का हाथ थामकर अपनी कार्ययोजना को अमलीजामा पहनाना आसान नहीं होगा। पार्टी में हाईकमान कल्चर और निर्णयों में देरी से भी उनकी चुनौतियां बढेंगी।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस ने कारणों पर विचार करने कई समितियों का गठन किया है। पर पार्टी कभी हार से सबक लेते हुए खुद को बदलने की कोशिश करती हुई नजर नहीं आई। ऐसे में प्रशांत किशोर कांग्रेस को बदलने में कितना सफल होंगे, इसको लेकर कई सवाल हैं। क्योंकि, पार्टी नेता के तौर पर काम करते हुए उनके सामने चुनौतियां की लंबी फेहरिस्त है।

सात प्रमुख चुनौतियां

1- संगठन
किसी भी राजनीतिक दल के लिए संगठन सबसे अहम होता है। पिछले कई वर्षों से कांग्रेस ने संगठन तैयार करने पर बहुत ध्यान नहीं दिया है। यही वजह है कि लगभग हर राज्यों में संगठन कमजोर है। ऐसे में कमजोर संगठन के साथ चुनावी हार को जीत में बदलने की कार्ययोजना पर अमल करना आसान नहीं है।

2- अंदरुनी कलह
कांग्रेस में अंदरुनी कलह चरम पर है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार के बावजूद पार्टी एकजुट नहीं है। दोनों राज्यों में पार्टी नेताओं के बीच मुख्यमंत्री पद को लेकर झगड़ा है। जिन राज्यों में पार्टी विपक्ष में है, वहां भी कलह बरकरार है। अंदरुनी कलह से जूझती कांग्रेस में ऐसा करना उनके लिए बड़ी चुनौती होगी।

3- असंतुष्ट नेता
पार्टी के अंदर वरिष्ठ नेताओं का एक बड़ा तबका हार के लिए कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाता रहा है। इन नेताओं ने पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को संगठन में बदलाव को लेकर कुछ सुझाव भी दिए हैं। पार्टी उनके सुझावों पर अमल के बजाए प्रशांत की कार्ययोजना पर काम करती है, तो उनकी नाराजगी और बढ़ सकती है।

4- सामूहिक नेतृत्व
कांग्रेस और प्रशांत किशोर के काम करने के तरीका अलग अलग है। प्रशांत हमेशा मुख्यमंत्री पद के दावेदार को केंद्र में रखकर चुनाव रणनीति का खाका तैयार करते रहे हैं। जबकि कांग्रेस अंदरूनी कलह को थामने और सबको साथ लेकर चलने के लिए ज्यादातर सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ती रही है। ऐसे में पार्टी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर पार्टी को एकजुट रखना प्रशांत के लिए बड़ी चुनौती होगी।

5- काम की आजादी
प्रशांत किशोर ने चुनाव रणनीतिकार के तौर पर कई राजनीतिक दलों के साथ काम किया है। इन सभी दलों ने प्रशांत किशोर और उनकी टीम को काम करने की पूरी आजादी दी। पार्टी संगठन ने भी चुनाव रणनीति को अमलीजामा पहनाने में उनकी पूरी मदद की। पर कांग्रेस में ऐसा करना आसान नहीं है। पार्टी नेताओं की अपनी पसंद नापंसद है। ऐसे में वह किस तक काम कर पाएगें, कहना मुश्किल है।

6- पूरे देश में कांग्रेस
वर्ष 2014 के चुनाव को छोड़ दिया जाए, तो चुनाव रणनीतिकार के तौर पर प्रशांत एक राज्य तक सीमित रहे हैं। उन्होंने किसी पार्टी के लिए एक साथ कई राज्यों में चुनाव रणनीति नहीं बनाई है। कांग्रेस के लिए अलग-अलग राज्यों में चुनाव के साथ लोकसभा के लिए भी चुनाव की रुपरेखा तैयार करनी है। ऐसे में उनके सामने हर राज्य में पार्टी की ताकत और कमजोरी को ध्यान में रखकर रणनीति बनाने की चुनौती होगी।

7- विपक्षी एकता
एक के बाद एक विधानसभा और लोकसभा चुनाव में हार के बाद विपक्ष में कांग्रेस का दबदबा कमजोर हुआ है। पार्टी की इस कमजोरी का फायदा उठाने के लिए तृणमूल कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति सहित कई क्षेत्रीय दल केंद्रीय राजनीति में अपनी भूमिका तलाश रहे हैं। टीएमसी कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता की वकालत कर रही है। ऐसे में कांग्रेस को केंद्र में रखकर विपक्ष को एकजुट करना आसान नहीं है।

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