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महाराजा सूरजमल 316वीं जयंती पर विशेष: महाराजा सूरजमल का इतिहास: जन्म, मृत्यु और दिल्ली पर परचम फहराने सहित तमाम बातें

Maharaja Suraj Mal special on 316th birth anniversary: History of Maharaja Surajmal: Birth, death and all things including hoisting the flag on Delhi

महाराजा सूरजमल का इतिहास मैंने एक बार बचपन में पढ़ा था यही कोई 15 साल पहले, उस वक्त स्कूल में इतिहास का एक अलग विषय होता था। उसी समय से आजतक मै महाराजा सूरजमल का इतिहास और गहराई से जान ने का इच्छुक था। क्यूंकि ये इतिहास उस योद्धा का है जिसने मुगलों की नींव उनकी राजधानी में ही हिला दी थी।

एक ऐसा राजा जिसने जिसने गीनी चुनी सेना के साथ निरंतर जंग लड़ लड़ के एक विशाल साम्राज्य बसा लिया था। खैर उनके बारे में इस लेख में विस्तार से बात करूंगा और इस लेख में महाराजा सूरजमल जाट के बारे में जो भी लिखने जा रहा हूं वो मेरे द्वारा भरतपुर यात्रा के दौरान प्राप्त की गई जानकारी है। इसलिए अगर कुछ इतिहास से छेड़छाड़ मिले तो कृपया कॉमेंट मै बताए।

महाराजा सूरजमल का बचपन, भरतपुर में जाट रियासत की शुरुवात

साल 1659 ईसवी, दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा मुगल शासक औरंगजेब , एक कट्टर मुगल शासक ने एक किसानों पर कर का ऐलान किया एक नए तरह का कर ताकि उसकी संपत्ति बढ़ सके। उसके आदेश के बाद मुगलों के अधीन समस्त इलाकों के किसानों से कर वसूला जाने लगा।

चाहे किसान खेत बोए या ना बोए उन्हें एक तय कर देना पड़ेगा, उसके इस जुल्म से तंग आकर किसानों ने विद्रोह कर दिया। कुछ इलाकों में किसान मुगल फौज के खौफ से डर कर पीछे हट गए और कुछ इलाकों में लालच की वजह से विद्रोह बंद कर दिया।

लेकिन इन सब के अलावा भारत के ब्रज इलाके में एक ऐसा कबीला था जिसने ना केवल कर देने से इंकार किया बल्कि कर वसूलने आए मुगलों को मौत के घाट उतार दिया। इस कबीले का सरदार था तिलपत का जमींदार गोकुला जाट।

औरंगजेब को जब इस बात का पता चला तो उसने विद्रोह को कुचलने के लिए एक खास टुकड़ी भेजी मगर वो भी गोकुला जाट को कैद नहीं कर पाए। इस घटना के बाद भी औरंगजेब ने एक के बाद एक तीन बार ब्रज में इस जाट कबीले पर हमला किया। लेकिन हर बार वो नाकाम रहे।

जाटों की वीरता देख दिल्ली के शाही तख्त पर बैठा औरंगजेब रुक नहीं पाया और उसने एक बहुत विशाल सेना के साथ तिलपत के मैदानों में कबीले को घेर लिया। साल था 1669, विशाल सेना को सामने देख कर भी जाट पिछे हटने के बजाय युद्ध के लिए कूद पड़े।

ये युद्ध कुछ देर चला और विशाल सेना ने जाटों के विद्रोह को कुचल दिया, गोकुला जाट युद्ध में मारे गए और उनके कुछ साथी कैद करके आगरा भेज दिए गए। आगरा में औरंगजेब ने अपनी कुर्रूता की हदे पार करते हुए सभी कैदियों को चौराहे पर टुकड़ों में काट दिया।

उसके इस घटिया काम से समस्त ब्रज और उसके आसपास के इलाकों के किसान आग बबूला हो गए, उन्होंने तिलपत में ही सामूहिक बैठक की और गोकुला जाट के बेटे राजा सिनसिनवार को तिल्पत का न्या सरदार घोषित कर दिया। सरदार बनते ही राजा ने पहली कसम मुगलों से बदले की खाई।

कुछ समय में नए सरदार ने एक दमदार सेना तैयार कर ली, और सेना तैयार होते ही उन्होंने आगरा के पास बने सिकंदरा पर आक्रमण कर दिया। सिकंदरा में मौजूद अकबर के मकबरे में तोड़फोड़ करके और आगरा से कुछ धन लूट उन्होंने अपने सरदार कि मौत का बदला लिया। यही से जाट और मुगलों के बीच दुश्मनी की शुरुवात हुई जो कभी ख़त्म नहीं हुई।

मुगलों को मुंह तोड़ जवाब देने के बाद ब्रज के इलाके में जाटों का नाम मशहूर हो गया, उनके किस्से लोगो की दैनिक वार्तालाप के हिस्से बन गए। कुछ समय बाद सिनसिनवार के बेटे बदन सिंह ने कबीले के सरदार का पद संभाला और अपने पूर्वजों कि तरह मुगलों से जंग जारी रखने का आदेश दिया।

सन 1722 में बदन सिंह ने गद्दी संभालते है आगरा के आसपास बने कुछ मुगलखानो पर धावा बोला और उस इलाके को अपने कब्जे में ले कर एक अलग नगर की नींव रख दी जिसे बाद में भरतपुर के नाम से जाना जाने लगा।

महाराजा सूरजमल का इतिहास, जन्म और राजगद्दी

1755 तक राजा बदन सिंह का राज ब्रज के भरतपुर में रहा, अपने शासन के दौरान उन्होंने जाट साम्राज्य की सीमा विस्तार के लिए मुगलों से कई लड़ाइयां लड़ी। मगर कहीं ना कहीं उनकी राजनीति में वो बात नहीं थी के वो जीते हुए इलाकों को मुगलों से बचा के रख सकते।

वो युद्ध लड़ते और कुछ समय तक इलाके पर कब्जा रखते और फिर मुगल वापस जीत लेते क्यूंकि उनकी सेना अभी भी कमजोर थी मुगलों के सामने जो पिछली 2 सदी से हिंदुस्तान के एक बड़े हिस्से पे राज करते थे। मुगलों को उनकी असली हैसियत दिखाई बदन सिंह ने बेटे महाराजा सूरजमल ने।

सन 1707 में राजा सूरजमल का जन्म हुआ बदन सिंह के घर में, अपने पिता से उन्होंने तमाम युद्ध कौशल सीखे। या यूं मान लीजिए के उनका बचपन भी मुगलों से लडने में गुजरा था। हालांकि उनको फैसले लेने का अधिकार नहीं था इसलिए बदन सिंह के जिंदा रहते वो अपने राज्य के लिए कोई योजना नहीं बना सकते थे।

बदन सिंह की मृत्यु के बाद महाराजा सूरजमल ने भरतपुर की गद्दी संभाली और सबसे पहला काम अपने लिए एक मजबूत सुरक्षित ठिकाना बनाने का किया। महाराजा सूरजमल बचपन से ही गुस्सैल प्रवृति के थे, काम उम्र में ही उन्होंने अपने पिता के आदेश के बाद मेवात के मेवो पर आक्रमण कर कुछ समय के लिए उनसे मेवात छीन लिया था।

मेवात के अलावा सूरजमल ने राजकुमार रहते हुए डीग के सोंगरियो पे हमला करके डीग के एक बड़े हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया था। ये युद्ध उन्होंने 1732 में लड़ा था। ये एक विशाल युद्ध था जिसमें काफी जान माल का नुक़सान हुआ था। इसी युद्ध के बाद सूरजमल ने भरतपुर में लोहागढ़ किले का निर्माण करवाया।

साल 1755 में किले की नींव रखे जाने के बाद समस्त रीति रिवाज़ों से महाराजा सूरजमल का राज्यभिषेक किया गया।

महाराजा सूरजमल का इतिहास और बागडू का युद्ध

साल 1643 में जयपुर के राजा जय सिंह की मौत के बाद उनके दो पुत्र इश्वरी सिंह और माधोसिंह के बीच राजगद्दी को ले कर आपसी झगड़ा चल रहा था। दोनों ही अपने अपने पक्षों के साथ जयपुर का अगला राजा बन ने का दावा कर रहे थे और दोनों के बीच तलवारे तक निकल गई थी।

युद्ध के लिए जाते सैनिक ( सांकेतिक चित्र )

राजा माधोसिंह का ननिहाल मेवाड था इसलिए उनका पक्ष थोड़ा सा मजबूत था क्यूंकि उनके पक्ष में मेवाड़ के राजा और उनके मित्र राज्य थे जिनमें जोधपुर, पाली और बूंदी के राजा शामिल थे। वहीं इश्वरी सिंह के साथ महाराजा सूरजमल और कुछ अन्य छोटी रियासतों के सरदार थे।

दोनों पक्षों के बीच जब सहमति नहीं बनी तो हुआ बागडू के मैदानों में भयंकर युद्ध जिसमें बड़े बड़े हिन्दू सम्राट केवल जयपुर की गद्दी के लिए आपसे में भीड़ गए । युद्ध में एक तरफ था अनुभव और ताकत वहीं दूसरी और एक युवा जिसने कम समय में ब्रज में अपना लोहा मनवा लिया था।

बागडू के युद्ध में जीत सूरजमल कि हुई और उन्होंने जय सिंह को दिए वादे को पूरा किया और इश्वरी सिंह को जयपुर की राजगद्दी पर बैठा दिया। इस युद्ध में ब्रज को एक नया युवा शासक दे दिया जिसपर उन्हें अब भरोसा हो चुका था। अब उनको मुगलों के अत्याचार से बचने की राह नजर आने लगी थी।

सराय का युद्ध

बागडू के युद्ध में जीत के बाद ब्रज में महाराजा सूरजमल के नाम का डंका बज रहा था, इस भव्य जीत के बाद महाराजा ने ब्रज से मुगलों का संपूर्ण सफाया करने और अपने राज्य की सीमा विस्तार के लिए आगे की योजना तैयार की।

महाराजा सूरजमल अब एक के बाद एक अनेक युद्ध लड़ने का शंखनाद कर चुके थे, उन्होंने मेवात नीमराना गुड़गांव जैसे इलाकों पर अपना कब्जा जमा कर अपनी हद दिल्ली के दरवाजे तक बढ़ा दी थी। उस वक्त दिल्ली में अहमद शाह का शासन था जो कि मुगल था।

अहमद शाह को जब लगा के उसके हाथ से दिल्ली जाने वाली है तो उसने भयभीत होकर आर पार की योजना बनाई और अपने मीर को विशाल सेना के साथ महाराजा सूरजमल से युद्ध करने भेज दिया। 30 दिसंबर 1749 को मीर सेना सहित सूरजमल की सरहद पार कर इलाके में जा पहुंचा।

मीर ने मेवात लूटा और नीमराना का किला भी अपने कब्जे में ले लिया, भरतपुर इस बात के पहुंचते है हिन्दू नववर्ष का कार्यक्रम रद्द कर महाराजा ने अपने सेनापति को मुगलों से लडने भेज दिया। मुगलों से भिड़ंत में सेनापति मारा गया और फिर क्रोध में आग बबूला खुद महाराजा सूरज मल ने सराय के मैदानों में मीर की सेना को चारो तरफ से घेर लिया।

तीन दिन तक मीर की सेना जाटों के बीच घिरी रही अंत मै युद्ध शूर हुआ और दोनों हाथ मै तलवार लिए जाट मुगलों पर टूट पड़े। कुछ ही देर में मुगलों का घमंड महाराजा के चरणों में पड़ा था। मीर अपनी जान की भीख मांगता रहा, महाराजा ने मीर को हर्जाना भरने और इलाका खाली करने की शर्त पे रिहा कर दिया।

मुगलों की इस पराजय की ख़बर सुनके समस्त राजपूताना भी सकते में आ गया के आखिर मुगलों का तख्त हिलाने की हिम्मत उत्तर भारत में किसकी हो गई। खैर कुछ ही दिन में महाराजा सूरजमल का लोहा राजपूताना भी मान ने लगा उनमें से कुछ राजा जो कि मुगलों के अधीन थे, मुगलों की बजाय महाराजा के पीछे आ गए।

इन युद्ध के बाद बारी आती है उस युद्ध की जिसने महाराजा सूरजमल का इतिहास अमर कर दिया।

महाराजा सूरजमल

दिल्ली के तख्त पर सूरजमल ( दिल्ली विजय दिवस )

सराय में हार के बाद अहमद शाह ने अपने वजीर सैफुदिन को पर से हटा दिया और उसे देश निकाला दे दिया, अपने बादशाह के इस धोखे से वजीर उसका दुश्मन बन गया और उसे सबक सीखाने के लिए भरतपुर कूच कर गया। महाराजा सूरजमल और वजीर में पहले से अच्छे संबंध थे।

उन संबंधों का वास्ता से कर वजीर ने महाराजा सूरजमल को दिल्ली पर हमला करने के लिए राजी कर लिया, मई 1553 में महाराजा सूरजमल ने दिल्ली पर हमला कर दिया। दिल्ली में महाराजा के सामने था वहां नवाब गयासुद्दीन जिसे जाटों ने ऐसा घेरा के वो चंद घंटो में युद्ध से भाग गया।

दिल्ली में जाट घुस चुके थे, सल्तनत से मुगलिया जर्जर हालत में किले के एक कमरे में कैद हो गई यानी बादशाह जाटों के दिल्ली में घुसने से डर कर एक कमरे में कैद हो गया। जाटों ने पुरानी दिल्ली में मई से लेकर जून तक दिल्ली में डेरा डाले रखा और भयंकर लूटपाट की। लूटपाट केवल मुगलों के खजाने की हुई ।

कमजोर और भयभीत अहमद शाह आखिर में महाराजा सूरजमल के सामने झुक गया और शांति संधि का प्रस्ताव रख दिया। महाराजा सूरजमल ने शर्त रखी कि उसके मित्र सैफुद्दीन की वापस से उसकी जागीर लौटाई जाए, अहमदशाह ने शर्त मान ली और उसे जिंदा छोड़ दिया गया।

जाटों से हार कर ग्यासुद्दीन मराठी सरहद में घुस गया और मल्हारराव होलकर को उकसा कर महाराजा सूरजमल के साथ युद्ध करने निकल पड़ा।

मराठी और जाट रियासत के बीच कुम्हेर का युद्ध

दिल्ली मे जाटो से हार कर गयासुद्दीन मराठी सेना की मदद से सूरजमल से हार का बदला लेने के लिए भरतपुर की तरफ पहुंच गया। भरतपुर की सेना से उसका मुकाबला हुआ कुम्हेर के किले से , उन्होंने कुम्हेर के किले को घेर लिया।

महाराजा सूरजमल उस समय भरतपुर से बाहर थे किसी मुहिम पर जब उन्हें गयासुद्दीन और मराठो की इस हरकत का पता चला वो तुरंत कुम्हेर की और लौट गए। उधर कुम्हेर में दुर्ग को घिरा देख वहां के सेनापति ने योजना बनाई के इनको जवाब दिया जाए अगर उन्हें पता चल गया कि दुर्ग में सेना कम है तो दुर्ग को कोई नहीं बचा पाएगा।

कुम्हेर के किले की छत पर रखी भारी तोपो से जाट सैनिकों ने दुश्मन पर हमला किया जिसमें मल्हार राओ होलकर का बेटा मारा गया। मराठी राजकुमार की मौत ने पुणे तक को सोचने पर मजबुर कर दिया क्यूंकि उस समय मराठे अपने सर्वश्रेष्ठ काल में थे।

पुत्र को मौत के बाद मल्हार राओ ने अपनी सेना को किले पर च्ढाई के लिए आगे कर दिया, राजा सूरजमल जब तक कुम्हेर पहुंचते तब तक उनकी रानी हंसिया ने मल्हार राओ की पत्नी रानी जयाजी को पत्र लिख उनके द्वारा उनके पुत्र को मारे जाने के हादसे की माफी मांग ली और तुरंत शांति वार्ता के लिए मना लिया।

महारानी के हस्तक्षेप के बाद मल्हार राओ और सूरजमल दोनों के बीच संधि हो गई और तय किया गया कि किसी की बातो में आके हिन्दू राजा आपस मै कभी नहीं लड़ेंगे। युद्ध यूं तो ज्यादा भीषण नहीं हुआ मगर उनके बेटे के मारे जाने से सूरजमल भी आहत हुए उन्होंने बदले में मराठो के लिए भरतपुर के रास्ते हमेशा के लिए खोल दिए जिनपर पहले कोई गुजरता तो उसे कर चुकाना पड़ता था।

ये सब घटना उत्तर भारत में हो रही थी वहीं दक्खन भारत में मराठे अपना एक विशाल साम्राज्य बसा चुके थे।  उनके द्वारा चलाई गई स्वराज की आंधी अटक से कटक तक भगवा लहरा चुकी थी, पूरे दक्खन पर उनका राज था। दिल्ली में उस वक्त आलमगीर द्वितीय गद्दी पर बैठा था, दिल्ली अब वो दिल्ली नहीं रही जिसके दीवाने हर सुल्तान होते थे।

दिल्ली एक जर्जर रियासत भर थी कंगाल और डरपोक, लेकिन फिर भी उनको अपना बचा खुचा नाम मिटने का डर था, सबसे बड़ा डर था मराठो का इसलिए वो समय पर मराठो को कर देते थे अपनी सुरक्षा के लिए।

पानीपत के तीसरे युद्ध में सूरजमल जाट और दिल्ली में षड्यंत्र

साल 1761 एक ऐसा साल था जिसमें एक नया विदेशी भारत की सरजमीं पर घुस गया था, सोने की चिड़िया को उजाड़ने के इरादे से। वो विदेशी आक्रांता था खूंखार अहमद शाह अब्दाली,  अब्दाली किसी भी सूरत पर दिल्ली जीतना चाहता था।

काबुल से मकसद ले कर निकला अब्दाली रास्ते में लूटपाट करता आया और दिल्ली जीत गया। ये खबर जब मराठा राजा के पास पहुंची तो उसने तुरंत अब्दाली को खदेड़ने के लिए सदाशिव राव भाऊ को एक विशाल सेना के साथ दिल्ली भेजा।

सदाशिव का मुकाबला दिल्ली मै अब्दाली से तो नहीं हुआ मगर उसने वहां मौजूद सेना को हराकर दिल्ली जीत ली, दिल्ली के राज सिंहासन के सामने भाऊ ने घोड़े की सलामी दे कर शिवाजी राजे को श्रद्धांजलि दी और उनके वर्षों पुराने सपने को पूरा किया। मराठी सेना दिल्ली जीत कर अब्दाली को वापस खदेंडने के लिए आगे बढ़े ।

यहां सदाशिव ने अब्दाली को भगाने के लिए आसपास के हिन्दू राजाओं को इक्कठा करना शुरू किया, उनकी एक आवाज पर साथ देने की रियासते आ गई जिनमें एक भरतपुर की सेना भी थी।

अवध से ले कर पानीपत तक महाराजा सूरजमल ने मराठो का साथ दिया लेकिन युद्ध मैदान पर भाऊ और सूरजमल के बीच आपसी मतभेद के बाद महाराजा सूरजमल भरतपुर वापस लौट गए।

जनवरी में पानीपत के मैदान पर एक भयंकर युद्ध लडा गया जिसमें मराठो की हार हुई, रूहेल और अफगानी फौज संख्या में ज्यादा होने के कारण जीत है मगर इस युद्ध ने उनकी कमर तोड़ दी। युद्ध में घायल हुए मराठो की मदद के लिए महाराजा सूरजमल आगे आए उन्होंने भरतपुर के द्वार उनके लिए खोल दिए।

घायल मराठा फौज की दवा दारू खाना सब भरतपुर में हुआ, महराजा सूरजमल ने बाद में सेना तैयार करके आगरा को जीत लिया। आगरा के अलावा उसी साल महाराजा सूरजमल ने हरियाणा की कई अन्य रियासतों पर हमला किया जिनमें मेवात, पलवल, और फर्रूखनगर थे।

फर्रूखनगर को जीत कर उन्होंने उसे अपने पुत्र जवाहर सिंह को सौंप दिया। एक बार फिर से उत्तर भारत में सूरजमल का डंका बज गया। उनकी सीमाएं दिल्ली से ब्रज तक फैल गई, उस समय दिल्ली में अब्दाली द्वारा बैठाया गया मुगल शासक था जो की कमजोर और बेहद डरपोक था। उसका वजीर था नजीब उद्दौला वहीं नजीब जिसने पानीपत का युद्ध करवाया।

नजीब को अब्दाली का समर्थन था और उस बात के वजह से उसने महाराजा सूरजमल की सीमाओं को मान ने से इंकार कर दिया और उनकी सीमाओं में जाके लूटपाट करवाने लगा। महाराजा को जब इस बात जा पता चला तो उन्होंने एक बार फिर से दिल्ली कूच कर दिया।

नजीब ने सूचना अब्दाली को भिजवाई और मदद मांगी, नजीब ने दिल्ली के सारे दरवाजे बंद करा दिए। अब सूरजमल की सेना  दोआब के मैदानों में पहुंच चुकी थी। वहां उन्हें दिल्ली के द्वार हर तरफ से बंद होने की सूचना मिली और अब्दाली के फिर स आगमन की भी।

लेकिन महाराजा सूरजमल कहीं ना कहीं नजीब की हरकत से बहुत ज्यादा गुस्से में थे, चारो तरफ स बंद चारदीवारी में कैद दिल्ली में वो केवल 30 घुडस्वारो के साथ दरवाजा तोड़ कर घुस गए। वहां मौजूद विशाल सेना महज 30 सैनिकों के साथ आए महाराजा सूरजमल पर टूट पड़ी।

उसी जगह युद्ध करते हुए महाराजा सूरजमल की मौत हो गई, इतिहासकार उनकी मौत से जुड़े अलग अलग मत देते है मगर जो भी था उस दिन भारत के एक वीर हमेशा के लिए चला गया। भरतपुर रियासत को अब महराजा जवाहर सिंह ने संभाला और अपने पिता के नियमो को आगे तक चलाया।

(Note : यह जानकारी यायावर डॉट कॉम से ली गई है जिसे राव अंकित द्वारा संजोया गया है l)

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